अजब गांडू की गजब कहानी-1

अन्य कहानियों के तरह ये कहानी भी पूर्णतया काल्पनिक है। इस कहानी के सभी पात्रों और घटनाओं का वास्तविकता से कोइ सम्बन्ध नहीं। ये कहानी केवल मनोरंजन के लिए लिखी गयी है।

भूमिका–

मैं हूं जी राजकुमार भारद्वाज। अभी दो दिन पहले ही ऑस्ट्रेलिया के पर्थ शहर से चार साल की पढ़ाई पूरी करके वापस लखनऊ आया हूं। 2018 में मैं और मेरा एक दोस्त हेमंत, हम दोनों दो-दो साल वाले पढ़ाई के कोर्स करने के लिए ऑस्ट्रेलिया के शहर पर्थ चले गए थे।

2018, और अब 2022 हो गया है। ऑस्ट्रेलिया में ये चार साल कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला। इन चार सालों में यहां पीछे बाराबंकी में कई कुछ हो गया। जी हां, बहुत कुछ हो गया इन चार सालों में उत्तर प्रदेश के शहर लखनऊ से 25 किलोमीटर दूर वाले इस बाराबंकी में, जहां हम रहा करते थे।

असल में पिछ्ले साल जब मैं पर्थ में था तो एक दिन पापा का फोन आया और तभी मुझे पता चला कि मेरे बचपन के दोस्त युगेन्द्र की शादी हो गई थी, वो भी चित्रा के साथ।

युगेंद्र की शादी? वो भी चित्रा के साथ? सुन कर मुझे बड़ी हैरानी हुई थी। बात ही हैरान कर देने वाली थी। युगेंद्र की शादी? युग तो शादी के लायक ही नहीं था। उसे तो चूत चुदाई में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी कभी। फिर उसने शादी के लिए हां ही कैसे कर दी।

बात दरअसल ये थी कि मेरा दोस्त युगेंद्र पैदाइशी गांडू था। बॉटम वाला गांडू। अब ये ‘बॉटम वाला गांडू’ क्या बला है?

दरअसल समलिंगी, लौण्डेबाज या कह लो गांडू, ये भी तीन तरह के होते हैं, इनकी भी किस्में होती हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे शराब की किस्में होती हैं – जिन, रम, व्हिस्की। जैसे जूतों की किस्में होती हैं – सैंडल, बूट, चप्पल। मगर मुश्किल ये है कि इन गांडूओं की किस्मों के लिए अंग्रेज़ी भाषा में तो शब्द हैं, मगर हिंदी भाषा में इन शब्दों के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं, कम से कम अभी तक तो नहीं हैं।

हिंदी भाषा में इनके पर्यायवाची शब्द ना होने का कारण शायद ये भी हो सकता है कि हमारे देश में इन गांडूओं को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता और इनके क्रियाकलापों के बारे में बात ही नहीं की जाती। इन गांडूओं के गांड चुदाई वाले क्रियाकलाप भी छुप-छुप कर होते हैं, सीक्रेट तरीके से। चोरी-चोरी, चुपके-चुपके।

अब वो बात अलग है ये “अच्छी नजर से ना देखने वाली बात” केवल उन गांडूओं पर लागू होती है जो अपनी गांड में लंड डलवाते हैं, गांड में लंड डालने वालों पर नहीं। असल में तो वो भी गांडू ही होते हैं, मगर वो अपने आप को किसी तीसमार खां से कम नहीं समझते।

वापस आते हैं गांडूओं की किस्मों पर। तो ये गांडू तीन तरह के होते हैं। अंगरेजी भाषा में इन्हें टॉप, वर्सेटाइल और बॉटम कहा जाता है।

अब जैसा कि नामों से ही पता चल रहा है, टॉप मतलब ऊपर वाला, मतलब नीचे वाले की गांड में लंड डालने वाला। ये टॉप अपनी गांड में लंड नहीं डलवाते। दूसरी किस्म है वर्सेटाइल मतलब बहुमुखी प्रतिभा वाले, सर्वगुणसम्पन्न या कह लो हरफनमौला, इन्हें किसी चीज़ से कोई परहेज नहीं। ये गांड में लंड डालते भी हैं और डलवाते भी हैं।

तीसरी और आख़री गांडूओं की किस्म है ‘बॉटम’ वाला गांडू। जैसा की नाम से ही पता चलता है, ‘बॉटम’ मतलब नीचे वाला। हमेशा गांड में लंड डलवाने वाला। गांडुओं की ये तीनों किस्में वैसे तो वक़्त आने पर चूत भी चोदती हैं, मगर कई बार इसमें एक कोइ ऐसा गांडू भी पैदा हो जाता है जिसे चूत चुदाई में कोइ दिलचस्पी ही नहीं होती।

ऐसा वाला ही गांडू है मेरे बचपन दोस्त युग, पूरा नाम युगेंद्र त्रिपाठी या कह लो ‘युग त्रिपाठी’ I ये “अजब गांडू की गजब कहानी” मेरे उसी बॉटम गांडू दोस्त युग त्रिपाठी की कहानी है, जिसे केवल गांड चुदवाने में ही दिलचस्पी थी, गांड चोदने या चूत चोदने में नहीं।

स्कूल टाइम से शुरू हुई ये कहानी ऐसे ही चलते रहती अगर युग की शादी ना हो गयी होती। इस कहानी एक अजीब सा मोड़ आया मेरे गांडू दोस्त युग त्रिपाठी की शादी के बाद, जब युग अपनी नई ब्याहता बीवी की चुदाई नहीं कर पाया। और फिर कुछ ऐसा हो गया जिसकी उस वक़्त किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

युग की नई नवेली बीवी चित्रा की चुदाई शुरू हो गई अपने ससुर, यानि युग के पापा देसराज के साथ और फिर ऐसा कुछ हुआ कि चित्रा की मेरे साथ भी चुदाई हो गयी।

अब ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ, ये बात ऐसे समझ में नहीं आएगी। पूरी बात को जानने समझने कि लिए हमें सत्रह साल पीछे जाना होगा। साल 2005 में। तो चलिए चलते है बाराबंकी, साल 2005 में।

जैसा मैंने बताया, हम लोग लखनऊ से 25 किलोमीटर दूर बसे दो लाख की आबादी वाले बाराबंकी में रहते थे। “रहते थे” इस लिए क्योंकि हमने अब बाराबंकी छोड़ दिया है और अब लखनऊ में रहने लगे हैं।

बाराबंकी में मेरे पिता राम नारायण भारद्वाज और मेरे गांडू दोस्त युग त्रिपाठी के पिता देसराज त्रिपाठी पड़ोसी थे। दोनों पड़ोसी होने के साथ साथ हमउम्र भी थे और दोस्त भी थे। दोनों ही पचास बावन के पेटे में थे।

कहने को तो दोनों ब्राह्मण थे, मगर सिर्फ नाम के। दोनों मांसाहारी थे और शराब के शौक़ीन भी। अक्सर शाम को दोनों की महफ़िल जमा करती थी, कभी हमारे घर कभी देसराज अंकल के घर।

बाराबंकी के हम दोनों परिवारों के हवेलीनुमा घर पास पास थे और हमारे घरों का आंगन सांझा हुआ करता था। देसराज अंकल का बाराबंकी के पास जहांगीराबाद के रास्ते में 32 एकड़ का बड़ा फार्म था। फार्म में एक फार्महाउस भी बना हुआ था जिसमें हर सुख सुविधा मौजूद थी। वहीं एक पोल्ट्री फार्म भी था और एक डेयरी फार्म भी था।

देसराज अंकल की जमीन के आस-पास ही मेरे पापा की भी 12 एकड़ जमीन थी। छह-छह एकड़ दो जगह। इसमें छह एकड़ देसराज अंकल की जमीन के साथ लगती थी। मेरे पापा बाराबंकी में ही पटवारी थे और उन्होंने वक़्त से पहले रिटायरमेंट ले ली थी। पापा के पास नोटों की कमी नहीं थी और पेंशन भी मोटी आती है।

अपनी पटवारी वाली नौकरी के दौरान पापा ने लखनऊ के गोमती नगर के बाहरी इलाके में हजार-हजार गज के दो प्लॉट ले लिए थे जो अब गोमती नगर बढ़ने के कारण कालोनी के अंदर ही आ गए हैं।

अब तो उन प्लॉटों के चारों तरफ माल और बड़े-बड़े शोरूम खुल गए हैं। बस पापा के ये दो प्लाट ही खाली हैं। पापा का इरादा भी इनमें शोरूम, रेस्टोरेंट या ऐसा ही कुछ करने का था।

देसराज अंकल की बड़ी बहन सुभद्रा, युग की बुआ, लखनऊ में तिवारियों के घर ब्याही थी। सुभद्रा को मैं भी बुआ ही बुलाता था। उन लोगों का लखनऊ की अनाज मंडी में आढ़त का काम है। अच्छा खाता पीता परिवार है। सुभद्रा बुआ का परिवार एक संयुक्त परिवार है। ये चित्रा, जिसके साथ मेरे गांडू दोस्त युग त्रिपाठी की शादी हुई थी, सुभद्रा बुआ की जेठानी की बेटी है।

चित्रा मेरे और युग की ही उम्र की होगी, या शायद एक साल कम। मगर बचपन में चित्रा थी उसी क्लास में जिसमें हम थे। जहां मैं और मेरा गांडू दोस्त युग त्रिपाठी पढ़ाई में फिस्सड्डी हुआ करते थे, वहीं चित्रा पढ़ाई मैं बहुत तेज़ होती थी।

छुट्टियों में लखनऊ से सुभद्रा बुआ के बच्चे बाराबंकी आ जाते थे। उन बच्चों में चित्रा भी होती थी। पूरे ग्रुप में चित्रा अकेली लड़की होती थी, बाकी सब लड़के थे। इस कारण चित्रा की भाषा भी लड़कों जैसी ही हो गयी – “खाऊंगा, खेलूंगा, पहनूंगा।” बाद में तो चित्रा गालियां भी लड़कों वाली ही देने लग गयी थी – साले, भोसड़ी के, चूतिये I

सब बच्चे आपस में खेला करते थे मगर युगेंद्र कभी भी चित्रा के साथ नहीं खेलता था। युग चित्रा क्या किसी भी लड़की के साथ नहीं खेलता था। युग की लड़कियों में दिलचस्पी ही नहीं थी।

बाराबंकी में मुहल्ले में हमारे दोनों परिवारों की खूब धाक थी। कारण था, मेरे पापा पटवारी थे और युग की पापा अच्छे खासे बड़े जिमींदार। इकलौते होने के कारण हमें पैसे की कोइ कमी तो थी नहीं। खूब नोट खर्चते थे हम। बचपन से ही युग को अपने दोस्तों पर रोब जमाने का बड़ा शौक था और ये शौक बड़ा होने तक भी बना ही रहा।

युग की एक अजीब आदत और भी थी जिसके कारण देस राज अंकल अक्सर परेशान हो जाया करते थे। युग जब भी लड़कों पर धौंस जमाता तो गालियां तो देता ही था, साथ ही अक्सर अकड़ कर बोला करता था, “तू मुझे जानता नहीं मैं कौन हूं। मैं युग त्रिपाठी हूं। अपने आप में एक ब्रांड हूं मैं।”

उसकी इस ”मैं एक ब्रांड हूं” वाली बात बड़ी अजीब थी, ये शायद किसी फिल्म का कोइ डायलॉग होगा युग ने सुना और रट लिया। वैसे भी ये ”ब्रांड” चुदाई से पहले लंड पर चढ़ाने वाले कॉन्डोम के तो हो सकते हैं, जैसे डुरेक्स, किमीनो, ट्रोजन, निरोध, कोहिनूर वगैरह।

इंसानों के ”ब्रांड” कैसे हो सकते हैं ये मुझे आज तक भी समझ नहीं आया। यही शुक्र था युग का दोस्त होने के बावजूद बात-बात पर दूसरों पर ये बेकार की रोब जमाने वाली और गालियां बकने वाली घटिया आदत मुझ में नहीं आयी थी।

— लुल्ले की मुट्ठ मारने का पहला मजा।

वक़्त गुजरता जा रहा था। 2015 या 2016 की बात होगी। हम अठारह साल के होंगे I हमारी लुल्लियां अब लुल्ले बन चुके थे, और जब खड़े हो जाते तो हाथ की हथेली में पूरे-पूरे आते थे। लुल्ले के आस-पास और नीचे टट्टों पर झांटों के भूरे रोयेंदार बाल दिखाई देने लगे थे। हम एक-दूसरे के लुल्ले पकड़ने का खेल खेलते थे।

एक दिन युग और मैं अपना लुल्ले पकड़ने का खेल खेलने एक सुनसान कोने में गए। दोनों ने एक-दूसरे के लुल्ले पकड़ लिए। तभी युग ने अपनी निक्कर नीचे की और घूम कर मेरा लुल्ला अपने चूतड़ों पर रगड़ने लगा। युग के ऐसा करने से मुझे बड़ा मजा सा आ रहा था। युग जोर-जोर से ये करने लगा। मैंने मजे में युग को पकड़ कस कर लिया और मैं भी अपना लुल्ला युग की चूतड़ों पर रगड़ने लगा।

तभी मुझे लगा की मेरी आंखें बंद हो रही थी। लुल्ले में झनझनाहट होने लगी। मन करने लगा और जोर-जोर से लुल्ला युग के चूतड़ों पर रगड़ूं। तभी कुछ अजीब सा हुआ और और मुझे एक-दम मजा आ गया। मेरे लुल्ले में से सफ़ेद-सफ़ेद कुछ निकला और युग के चूतड़ों पर फ़ैल गया।

मुझे लगा कि युग गुस्सा करेगा। मगर युग ने सारा सफ़ेद पानी अपने चूतड़ों मल लिया।

फिर युग घूमा और अपना लुल्ला हाथ में ले कर आगे-पीछे करने लगा। कुछ ही देर में युग के मुंह से ‘आआआह ‘ जैसी आवाज निकली और उसके लुल्ले में से भी वैसा ही सफ़ेद-सफ़ेद पानी निकल गया।

ये मेरी जिंदगी का लंड की मुट्ठ मार कर पानी निकलने का पहला तजुर्बा था। अब ये सिलसिला भी शुरू हो गया और इस मुट्ठ मारने वाले क्रियाकलाप में हमारे लुल्लों की पकड़न-पकड़ाई वाले दूसरे दोस्त भी शामिल हो गए।

वक़्त की घड़ी तो अपनी चाल से चलते जा रही थी। मुट्ठ मारते हुए हम देख रहे थे कि हमारी लुल्लियां जो बचपन का सफर तय करते-करते लुल्ले बन चुके थे, अब लंड बनने की तैयारी में थे I

मुट्ठ मारते वक़्त अक्सर हम दोस्तों को एक बात खटकती थी। जहां हम सबके लुल्ले लंड बन रहे थे युग का लुल्ला लंड बनने में पिछड़ रहा था। युग का लंड साढ़े चार-पांच इंच पर ही जा कर रुक गया और हमारे लंड छह इंच सात इंच वाले खूंटे बन गए।

इस छोटे लंड के कारण लड़के युग को कई बार चिढ़ाते भी थे। मगर युग था कि वो इस बात से कभी चिढ़ता ही नहीं था।  थक हार कर लड़कों ने उसे चिड़ाना ही छोड़ दिया I

हम नए-नए जवान होते लड़के जब लड़कियों के बातें करते तो अक्सर यही बातें होती थीं कि जितना बड़ा लंड होगा उतनी लड़कियां ज्यादा फसेंगी और उतना ही चुदाई का मजा ज्यादा आएगा। मगर युग कभी भी इस तरह की बातें नहीं करता था।

युग मेरा दोस्त था। जब भी हम लड़के लोग लंड हाथ में पकड़ कर इस तरह की लड़कियों की चुदाई के ख्याली पुलाओ पका रहे होते, और चुदाई की बातें करते हुए मजे ले रहे होते थे, मैं ये जरूर सोचा करता था कि युग मौक़ा आने पर अपने इस छोटे लंड से लड़की की चुदाई कैसे करेगा।

ये तो बाद में समझ में आया कि डाक्टरों के हिसाब से तो लड़की को साढ़े चार इंच के लंड से भी चुदाई का मजा दे देता है। बस इतना है कि लंड चुदाई के दौरान कड़क रहना चाहिए और चुदाई लम्बी चलनी चाहिए।

मगर ऐसी लड़कियों का क्या करें जिन्होंने सपने देखे होते हैं की ऐसा पति मिलेगा जिसका लंड इतना बड़ा होगा चुदाई करते हुए उन्हें जन्नत का मजा देगा और चोदते-चोदते उनकी चूत के पटाखे बजा देगा, परखच्चे उड़ा देगा, चूत फाड़ कर रख देगा I

वैसे “चूत फाड़ना” केवल एक कहावत की तरह ही कहने की बात है I आज तक चुदाई में किसी की चूत नहीं फटी, हां चूत की सील जरूर फटती है। वो भी आज कल नहीं। आज कल तो लड़कियां उंगली कर-कर के ही छोटी उम्र में अपनी चूत की सील तोड़ लेती हैं। बीस इक्कीस तक पहुंचते-पहुंचते तो अक्सर लड़कियों की चुदाई क्या चुदाईयां भी हो चुकती हैं।

उस दिन जब ऑस्ट्रेलिया में फोन पर मुझे पापा ने बताया कि युग की चित्रा के साथ शादी हो गयी है तो सब से पहले मेरे दिमाग़ में यही बात आयी थी कि युग को तो लड़कियों में कोइ दिलचस्पी ही नहीं रही। फिर उसने शादी के लिए हां ही कैसे कर दी। क्या युग चित्रा को ढंग से चोदता भी होगा या नहीं? अगर चोदता भी होगा तो क्या चित्रा को युग के छोटे लंड से चुदाई करवाने का मजा भी आता होगा या नहीं?

आखिर को चित्रा ने भी तो ऐसे पति के सपने देखे होंगे जिसका लंड हो ऐसा होगा जो चुदाई के वक़्त उनको जन्नत का मजा देगा और चुदाई करते करते उनकी चूत के पटाखे बजा देगा, परखच्चे उड़ा देगा।

सवाल बहुत उठ रहे थे मेरे मन में, लेकिन जवाब किसी एक का भी नहीं सूझ रहा था।

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